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रविवार, दिसंबर 08, 2013

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प्रेमचंद जयन्ती के अवसर पर - 'प्रेमचंद घर में'

आज से कोई पच्चीस साल पहले जब राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रेमचंद शतवार्षिकी के आयोजन की तैयारियां चल रही थीं तब हमारे 'हिन्दी मास्स्साब' ने एक किस्सा सुनाया था कि जब किसी पत्रकार ने हिन्दी सिनेमा की एक मशहूर अदाकारा से प्रेमचंद के बाबत कुछ पूछा था तो उस स्त्री का प्रतिप्रश्न था -'हू इज प्रेमचण्ड?' पता नही इस खबर में कितनी सत्यता थी या कि यह एक चुटकुला था या फ़िर सिनेमा की दुनिया के प्रति 'हिन्दी वालों' के दुराग्रह का नमूना था लेकिन इससे सवाल तो उठता ही है कि हम अपने लेखकों, कवियों, कलाकारों को कितना जानते है?

प्रेमचंद (३१ जुलाई १८८० - ८ अक्टूबर १९३६) के लेखन विविध आयामों को समझने-बूझने के लिए ढे़र सारी किताबें मौजूद हैं और निरंतर नई छप भी रही हैं लेकिन उनके व्यक्तित्व को समझने की दो जरूरी कुंजियां हैं- एक तो 'कलम का सिपाही' जो उनके बेटे अमृत राय की लिखी हुई है और दूसरी किताब उनकी पत्नी शिवरानी देवी (१८९४ -१९७६) की लिखी 'प्रेमचंद घर में' है. पहली किताब तो आसानी से उपलब्ध है किंतु दूसरी पुस्तक १९४४ मे पहली बार छपी थी और उसका पुनर्प्रकाशन लगभग आधी सदी से अधिक समय गुजर जाने के बाद ही हुआ वह भी प्रेमचंद और शिवरानी देवी के नाती प्रबोध कुमार और संजय भारती के प्रयासों से. शिवरानी देवी अपने समय की चर्चित कहानीकार रही हैं. श्री प्रबोध कुमार अपने संस्मरणात्मक लेख 'नानी अम्मा' में यह खुलासा करते हैं कि उन्होंने अपना लेखकीय नाम 'शिवरानी देवी प्रेमचंद' माना था.

'प्रेमचंद घर में' अपने आप मे एक अनूठी पुस्तक है. इसमे एक पत्नी के नजरिए से उस व्यक्ति को समझने की कोशिश की गई है जो कि एक मशहूर लेखक है किंतु स्वयं को एक मजदूर मानता है- 'कलम का मजदूर'. शिवरानी जी ने बेहद छोटे-छोटे डिटेल्स के माध्यम घर-परिवार , नातेदारी-रिश्तेदारी, लेखन -प्रकाशन की दुनिया में मसरूफ़ प्रेमचंद की एक ऐसी छवि गढ़ी है जो 'देवोपम' नहीं है , न ही वह उनकी 'कहानी सम्राट' और 'उपन्यास सम्राट' की छवि को ग्लैमराइज करती है बल्कि यह तो एक ऐसा 'पति-पत्नी संवाद' है जहां दोनो बराबरी के स्तर पर सवालों से टकराते हैं और उनके जवाब तलाशने की कोशिश मे लगे रहते हैं. यह पुस्तक इसलिये भी / ही महत्वपूर्ण है कि स्त्री के प्रति एक महान लेखक के किताबी नजरिए को नहीं बल्कि उसकी जिन्दगी के 'फ़लसफ़े' को बहुत ही बारीक ,महीन और विष्लेषणात्मक तरीके से पेश करती है. स्त्री विमर्श के इतिहास और आइने में झांकने के लिये यह एक अनिवार्य संदर्भ ग्रंथ है.

आज प्रेमचंद जयन्ती के अवसर पर कोई कहानी, उपन्यास अंश, निबंध,संपादकीय आदि न देकर और न ही प्रेमचंद का जीवन परिचय अथवा उनके द्वारा लिखित तथा अनूदित पुस्तकों की सूची देकर रस्म अदायगी करने की मंशा है और न ही 'उनके बताए रास्ते पर चलने' का संदेश देने का ही मन है अपितु 'प्रेमचंद घर में' पुस्तक का अंश इस इरादे से दिया जा रहा है कि अक्सर ऐसा देखा गया है कि बाहर की दुनिया का 'महान मनुष्य' घर की चहारदीवारी में घुसते ही अपनी महानता का केंचुल उतारकर 'मर्द' के रूप में रूपांतरित हो जाता है. प्रेमचंद ने स्वयं को 'घरे-बाइरे' के इस दुचित्तेपन के खतरे से बाहर कर लिया था ; केवल शब्द में ही नहीं कर्म में भी.

मैं गाती थी, वह रोते थे / शिवरानी देवी

बंबई में एक रात बुखार चढ़ा तो दूसरे दिन भी पांच बजे तक बुखार नहीं उतरा. मैं उनके पास बैठी थी. मैंने भी रात को अकेले होने की वजह से खाना नहीं खाया था. कोई छ: बजे के करीब उनका बुखार उतरा.

आप बोले- क्या तुमने भी अभी तक खाना नहीं खाया?

मैं बोली- खाना तो कल शाम से पका ही नहीं.

आप बोले- अच्छा मेरे लिए थोड़ा दूध गरम करो और थोड़ा हलवा बनाओ. मैं हलवा और दूध तैयार करके लाई. दूध तो खुद पी लिया और बोले- यह हलवा तुम खाओ. जब हम दोनो आदमी खा चुके , मैं पास में बैठी.

आप बोले- कुछ पढ़ करके सुनाओ, वह गाने की किताब उठा लो. मैंने गाने की किताब उठाई. उसमें लड़कियों की शादी का गाना था. मैं गाती थी, वह रोते थे. उसके बाद मैं तो देखती नहीं थी, पढ़ने में लगी थी, आप मुझसे बोले- बंद कर दो, बड़ा दर्दनाक गाना है. लड़कियों का जीवन भी क्या है. कहां बेचारी पैदा हों, और कहां जायेंगी, जहां अपना कोई नहीं है. देखो, यह गाने उन औरतों ने बनाए हैं जो बिल्कुल ही पढ़ी-लिखी ना थीं. आजकल कोई एक कविता लिखता है या कवि लोगों का कवि सम्मेलन होता है, तो जैसे मालूम होता है कि जमीन-आसमान एक कर देना चाहते हैं. इन गाने के बनानेवालियों का नाम भी नहीं है.

मैंने पूछा- यह बनानेवाले थे या बनानेवालियां थीं?

आप बोले- नहीं, पुरुष इतना भावुक नहीं हो सकता कि स्त्रियों के अंदर के दर्द को महसूस कर सके. यह तो स्त्रियों ही के बनाए हुए हैं.स्त्रियों का दर्द स्त्रियां ही जान सकती हैं, और उन्हीं के बनाए यह गाने हैं.

मैं बोली- इन गानों को पढ़ते समय मैं तो ना रोई और आप क्यों रो पड़े?

आप बोले- तुम इसको सरसरी निगाह से पढ़ रही हो, उसके अंदर तक तुमने समझने की कोशिश नहीं की. मेरा खयाल है कि तुमने मेरी बीमारी की वजह से दिलेर बनने कोशिश की है.

मैं बोली- कुछ नहीं, जिन स्त्रियों को आप निरीह समझते हैं, कोई उनमें निरीह नहीं है.अगर हैं निरीह, तो स्त्री-पुरुष दोनो ही हैं.दोनो परिस्थिति के हाथ के खिलौने हैं, जैसी परिस्थिति होती है, उसी तरह दोनो रहते हैं. पुरुषों के ही पास कौन उनके भाई-बंद बैठे रहते हैं, संसार में आकर सब अपनी किस्मत का खेल खेला करते हैं.

आप बोले- जब तुम यह पहलू लेती हो, तो मैं यह कहता हूं, कि दोनो एक दूसरे के माफ़िक अपने-अपने को बनाते हैं, और उसी समय सुखी होते हैं, जब एक-दूसरे के माफ़िक होते हैं. और उसी में सुख-आनंद है.

मगर हां इसके खिलाफ़ दोनो हों, तो उसमें पुरुष की अपेक्षा स्त्री अधिक निरीह हो जाती है.
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प्रेमचंद घर में (Premchand ghar mein by Shivrani Devi Premchand)

उन दिनों मैं अकेली महोबे में रहती थी. वे जब दौरे पर रहते तो मेरे साथ ही सारा समय काटते और अपनी रचनाएँ सुनाते. अंग्रेजी अखबार पढ़ते तो उसका अनुवाद मुझे सुनाते. उनकी कहानियों को सुनते-सुनते मेरी भी रुचि साहित्य की ओर हुई. जब वे घर पर होते, तब मैं कुछ पढ़ने के लिए उनसे आग्रह करती. सुबह का समय लिखने के लिए वे नियत रखते. दौरे पर भी वे सुबह ही लिखते. बाद को मुआइना करने जाते. इसी तरह मुझे उनके साहित्यिक जीवन के साथ सहयोग करने का अवसर मिलता. जब वे दौरे पर होते, तब मैं दिन भर किताबें पढ़ती रहती. इस तरह साहित्य में मेरा प्रवेश हुआ.
उनके घर रहने पर मुझे पढ़ने की आवश्यकता न प्रतीत होती. मुझे भी इच्छा होती कि मैं कहानी लिखूँ. हालाँकि मेरा ज्ञान नाममात्र को भी न था, पर मैं इसी कोशिश में रहती कि किसी तरह मैं कोई कहानी लिखूँ. उनकी तरह तो क्या लिखती. मैं लिख-लिखकर फाड़ देती. और उन्हें दिखाती भी नहीं थी. हाँ, जब उनपर कोई आलोचना निकलती तो मुझे उसे सुनाते. उनकी अच्छी आलोचना प्रिय लगती. काफी देर तक यह खुशी रहती. मुझे यह जानकार गर्व होता कि मेरे पति पर यह आलोचना निकली है. जब कभी उनकी कोई कड़ी आलोचना निकलती, तब भी वे उसे बड़े चाव से पढ़ते. मुझे तो बहुत बुरा लगता.
मैं इसी तरह कहानियाँ लिखती और फाड़कर फेंक देती. बाद में गृहस्थी में पड़कर कुछ दिनों के लिए मेरा लिखना छूट गया. हाँ, कभी कोई भाव मन में आता तो उनसे कहती, इस पर आप कोई कहानी लिख लें. वे जरूर उस पर कहानी लिखते.
कई वर्षों के बाद, 1913 के लगभग, उन्होंने हिन्दी में कहानियाँ लिखना शुरू किया. किसी कहानी का अनुवाद हिन्दी में करते, किसी का उर्दू में. 
मेरी पहली 'साहस' नाम की कहानी चाँद में छपी. मैंने वह कहानी उन्हें नहीं दिखाई. चाँद में आपने देखा. ऊपर आकर मुझसे बोले - अच्छा, अब आप भी कहानी-लेखिका बन गईं ? बोले - यह कहानी आफिस में मैंने देखी. आफिसवाले पढ़-पढ़कर खूब हँसते रहे. कइयों ने मुझ पर संदेह किया. 
तब से जो कुछ मैं लिखती, उन्हें दिखा देती. हाँ, यह खयाल मुझे जरूर रहता कि कहीं मेरी कहानी उनके अनुकरण पर तो नहीं जा रही हो. क्योंकि मैं लोकापवाद को डरती थी.
एक बार गोरखपुर में डा. एनी बेसेंट की लिखी हुई एक किताब आप लाए. मैंने वह किताब पढ़ने के लिए माँगी. आप बोले - तुम्हारी समझ में नहीं आएगी. मैं बोली - क्यों नहीं आएगी ? मुझे दीजिए तो सही. उसे मैं छः महीने तक पढ़ती रही. रामायण की तरह उसका पाठ करती रही. उसके एक-एक शब्द को मुझे ध्यान में चढ़ा लेना था. क्योंकि उन्होंने कहा था कि यह तुम्हारी समझ में नहीं आएगी. मैं उस किताब को खतम कर चुकी तो उनके हाथ में देते हुए बोली - अच्छा, आप इसके बारे में मुझसे पूछिए. मैं इसे पूरा पढ़ गई. आप हँसते हुए बोले - अच्छा !
मैं बोली - आपको बहुत काम रहते भी तो हैं. फिर बेकार आदमी जिस किसी चीज के पीछे पड़ेगा, वही पूरा कर देगा. 
मेरी कहानियों का अनुवाद अगर किसी और भाषा में होता तो आपको बड़ी प्रसन्नता होती. हाँ, उस समय हम दोनों को बुरा लगता, जब दोनों से कहानियाँ माँगी जातीं. या जब कभी रात को प्लाट ढूँढ़ने के कारण मुझे नींद न आती, तब वे कहते - तुमने क्या अपने लिए एक बला मोल ले ली. आराम से रहती थीं, अब फिजूल की एक झंझट खरीद ली. मैं कहती - आपने नहीं बला मोल ले ली ! मैं तो कभी-कभी लिखती हूँ. आपने तो अपना पेशा बना रखा है.
आप बोलते - तो उसकी नकल तुम क्यों करने लगीं ?
मैं कहती - हमारी इच्छा ! मैं भी मजबूर हूँ. आदमी अपने भावों को कहाँ रखे ?
किस्मत का खेल कभी नहीं जाना जा सकता. बात यह है कि वे होते तो आज और बात होती. लिखना-पढ़ना तो उनका काम ही था. मैं यह लिख नहीं रही हूँ, बल्कि शांति पाने का एक बहाना ढूँढ़ रखा है. 

लेखिका - शिवरानी देवी
किताब - प्रेमचंद घर में 
प्रकाशक - रोशनाई प्रकाशन, पश्चिम बंगाल, 2005

इस किताब में प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने अपने घरेलू जीवन के छोटे-छोटे संस्मरण दर्ज किए हैं. यह पहली बार 1944 में छपी थी और इसका दूसरा संस्करण हिन्दुस्तानी पब्लिशिंग हाउस, इलाहाबाद से 1952 में. दूसरे संस्करण को तैयार करते समय शिवरानी देवी ने अपने नाती प्रबोध कुमार की मदद से किताब में कुछ चीजें जोड़ी-घटाई थीं. पता नहीं उन्हें शामिल किया गया था या नहीं, लेकिन उसी संस्करण के आधार पर रोशनाई प्रकाशन की पांडुलिपि बनी थी. मेरा खयाल है कि प्रस्तुत प्रसंग से वास्तविक जीवन की परतों को समझा जा सकता है.


जीना है तो लड़ना होगा-वृंदा करात लिखित 


आधी आबादी का संघर्ष- राजकमल प्रकाशन




 

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